है निकट जीवन की संध्या भोर से कह दिजीये
एक टुकड़ा धूप का मुट्ठी में है ले लिजीये
वेदना और कष्ट ही जीवन की हैं उपलाब्धियाँ
आत्मा के कक्ष में संचित है वितरत किजीये
रेत आँगन में बिछाकर मेघ दुश्मन हो गए
नीर नयनों से टपकने को हैं तुलसी दिजीये
यातना परिपक्व होकर दे रही संकेत है
हो अधर यदि मौन तो पलकों को भी ढक दिजीये
-गीत द्वारा सतीश अग्रवाल फरीदाबाद !
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