शनिवार, 28 जनवरी 2012

मैं राहे जिन्दगी पे चलता जाता हूँ--गज़ल

मैं राहे जिन्दगी पे चलता जाता हूँ
अहसासे रूह मगर मैं करता जाता हूँ

चोटों से जिन्दगी की मैंने सीखा है
ज़ख्मों को यों तभी अपने भरता जाता हूँ

दुःख दरदों से कभी डरना कैसा है अपने
दर्दमंदों के मगर दर्द से मैं मरता जाता हूँ

इन्सा जो भी वफा की राहों पे चलते हैं
उनका मैं तो हमेशा ही सजदा करता जाता हूँ

सच की राहें बड़ी हैं आसाँ चलने को
पैगामे जिन्दगी मैं ऐसा कहता जाता हूँ       !!
                                                                         (यह गज़ल मैंने आज२८/१/२०१२ को "हिमधारा" साईट पर प्रकाशित की है,और इसका लिंक मैने इस ब्लॉग पर भी दे दिया था !अब पूरी गज़ल मैं पाठकों की सुविधा के लिए यहाँ भी दे रहा हूँ--अश्विनी रमेश )

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