शुक्रवार, 23 दिसंबर 2011

*****रूठते सिरफ वो तो मना ही लेते हम*****--गज़ल

रूठते सिरफ वो तो मना ही लेते हम
होते गिले शिकवे तो मिटा ही लेते हम

हमसे खफा का सबब वो ही जाने
होती खता कोई सज़ा ही लेते हम

ऐसी न थीं मजबूरियाँ कोई उनकी
होते दिले रुसवा खता ही लेते हम

वस्ल हिज्र ज़माने की पुरानी बातें हैं
जो हाल हो खुलकर सुना ही लेते हम

रूठना कभी तो मान जाना वाज़िब है
होता कहीं ऐसे निभा ही लेते हम !!

           (यह गज़ल मैंने 22/12/2011 को पहली बार "हिमधारा" साईट पर प्रकाशित की थी और इसका लिंक इस ब्लॉग पर दिया था,पाठकों की सुविधा हेतु पूरी गज़ल यहाँ भी दे रहा हूँ--अश्विनी रमेश)

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