उदासी में कुछ भी नहीं
सुहाता है
मंजर दिलकश भी नहीं
लुभाता है !!
बैचेनियाँ जब इस कदर
घेरतीं हैं
मज़ा सा ज़िंदगी का नहीं
आता है !!
इन्सान तो इन्सान होता है
आखिर
कैसे कहें वो तो नहीं
घब्रराता है !!
असल में ज़िन्दगी इम्तिहा
होती है
हर कोइ अपने तरीके से
निभाता है
जब वक्त तेवर अपने दिखाता
है
इन्सान तब आखिर सहम जाता
है !!
©--अश्विनी रमेश
(इस ग़ज़ल की रचना मेरे द्वारा 24/10/2013 को की गयी –)अश्विनी रमेश
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